जिस चीज को तुम भुलाना चाहोगे उसकी याद और आएगी क्योकि भुलाने में भी तो याद आती है भुलाने में भी तो याद हो रही है..!!


परिचय: स्मृति और विस्मृति का मनोविज्ञान

ओशो का यह कथन, "जिस चीज को तुम भुलाना चाहोगे उसकी याद और आएगी क्योंकि भुलाने में भी तो याद आती है, भुलाने में भी तो याद हो रही है," हमें स्मृति और विस्मृति के बीच के जटिल संबंधों को समझने के लिए प्रेरित करता है। यह कथन दर्शाता है कि मनुष्य का मन कैसे कार्य करता है और उसकी स्मृतियों का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। हम अक्सर उन चीजों को भुलाना चाहते हैं जो हमें दर्द देती हैं, लेकिन जितना अधिक हम उन्हें भुलाने की कोशिश करते हैं, उतनी ही वे हमारी स्मृतियों में गहरी होती जाती हैं। 

यह कथन हमारे मानसिक और भावनात्मक अनुभवों को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इस लेख में, हम इस कथन के विभिन्न पहलुओं की गहराई से चर्चा करेंगे, इसके मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक संदर्भों का विश्लेषण करेंगे, और इसे आधुनिक जीवन के संदर्भ में समझने की कोशिश करेंगे।

1. स्मृति का स्वभाव: मन की अनिवार्यता

हमारा मन एक जटिल संरचना है, जिसमें स्मृतियाँ हमारे अनुभवों, विचारों और भावनाओं के रूप में संग्रहीत होती हैं। स्मृतियाँ मन की एक अनिवार्य विशेषता हैं, जो समय-समय पर हमारे चेतन और अवचेतन में उभरती रहती हैं। 

जब हम किसी चीज़ को भुलाने की कोशिश करते हैं, तो वास्तव में हम उस चीज़ को और अधिक याद करते हैं। यह इसलिए होता है क्योंकि भुलाने का प्रयास खुद एक स्मृति है। जब हम यह निर्णय लेते हैं कि हमें किसी घटना, व्यक्ति या भावना को भुलाना है, तो वह विचार हमारे मस्तिष्क में सक्रिय हो जाता है, जिससे वह स्मृति और भी अधिक प्रबल हो जाती है।

उदाहरण:

अगर कोई व्यक्ति अपने अतीत के किसी दर्दनाक अनुभव को भुलाने की कोशिश करता है, तो वह अनुभव उसे बार-बार याद आता है। वह जितना अधिक उस घटना को भुलाने की कोशिश करता है, उतनी ही वह स्मृति उसे सताती है। यह मन की स्वाभाविक प्रक्रिया है कि जिसे हम भुलाना चाहते हैं, वही हमें अधिक याद आता है।

2. प्रतिरोध और स्वीकार्यता का द्वंद्व

ओशो का यह कथन हमें प्रतिरोध और स्वीकार्यता के बीच के द्वंद्व को समझने में मदद करता है। जब हम किसी चीज़ को भुलाने का प्रयास करते हैं, तो हम उस चीज़ के प्रति प्रतिरोध पैदा कर रहे होते हैं। यह प्रतिरोध हमें उस स्मृति से और भी अधिक जोड़ देता है। 

मनोविज्ञान में इसे 'इरॉनिक प्रोसेस थ्योरी' (Ironic Process Theory) के नाम से जाना जाता है। यह थ्योरी बताती है कि जब हम किसी विचार को दबाने की कोशिश करते हैं, तो वह विचार हमारे मन में और अधिक सक्रिय हो जाता है। 

ओशो इस द्वंद्व को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि स्मृतियों से बचने के बजाय हमें उन्हें स्वीकार करना चाहिए। जब हम स्वीकार करते हैं कि स्मृतियाँ हमारे जीवन का हिस्सा हैं, तो वे हमें उतनी परेशान नहीं करतीं। 

उदाहरण:

अगर किसी व्यक्ति को अपनी असफलता की यादें परेशान करती हैं, तो वह उनसे बचने की कोशिश करता है। लेकिन जितना वह उनसे बचने की कोशिश करता है, उतनी ही वे उसे सताती हैं। अगर वह इन स्मृतियों को स्वीकार कर ले और उनसे सीख ले, तो वे उसे उतना परेशान नहीं करेंगी।

3. मानसिक बंधन: यादों का दासत्व

यह कथन हमें यह भी समझाता है कि हम अपनी स्मृतियों के बंधन में फँस जाते हैं। जब हम किसी चीज़ को भुलाने की कोशिश करते हैं, तो हम उस स्मृति के प्रति और भी अधिक बंधे रहते हैं। यह मानसिक बंधन हमें वर्तमान में जीने से रोकता है। 

हमारी यादें हमें बार-बार उस घटना या व्यक्ति के बारे में सोचने पर मजबूर करती हैं, जिसे हम भुलाना चाहते हैं। यह बंधन हमें हमारे अतीत में कैद कर देता है, जिससे हम अपने वर्तमान और भविष्य को भी प्रभावित करते हैं। 

उदाहरण:

एक व्यक्ति जिसने अपने प्रियजन को खो दिया हो, वह उस दर्दनाक घटना को भुलाने की कोशिश करता है। लेकिन जितना वह उसे भुलाने की कोशिश करता है, उतना ही वह उस दुख में फँसता जाता है। यह मानसिक बंधन उसे उस घटना से बाहर निकलने नहीं देता।

4. ध्यान और अवचेतन मन: स्मृतियों का समाधान

ओशो के विचारों में ध्यान का एक महत्वपूर्ण स्थान है। उनका मानना है कि ध्यान के माध्यम से हम अपने अवचेतन मन तक पहुँच सकते हैं, जहाँ हमारी स्मृतियाँ संग्रहीत होती हैं। जब हम ध्यान करते हैं, तो हम अपने मन को शांत करते हैं और उन स्मृतियों को स्वीकार करने की प्रक्रिया में प्रवेश करते हैं जिन्हें हम भुलाना चाहते हैं।

ध्यान के माध्यम से, हम स्मृतियों को एक नए दृष्टिकोण से देख सकते हैं। हम समझ सकते हैं कि वे केवल हमारे मन के अनुभव हैं, और वे हमें तभी तक प्रभावित करती हैं जब तक हम उन्हें महत्व देते हैं। 

उदाहरण:

एक साधक जो ध्यान करता है, वह अपने अतीत की घटनाओं को बिना किसी निर्णय के देख सकता है। वह समझता है कि स्मृतियाँ केवल विचार हैं, और उन्हें भुलाने की कोशिश करने के बजाय उन्हें स्वीकार करना ही शांति का मार्ग है।

5. जीवन की घटनाओं का चक्र: स्मृतियों का पुनरावर्तन

ओशो का यह कथन हमें यह भी समझाता है कि जीवन में घटनाओं का एक चक्र होता है। हम जिन चीज़ों को भुलाने की कोशिश करते हैं, वे बार-बार हमारे जीवन में वापस आती हैं। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक हम उन घटनाओं का सामना नहीं कर लेते और उन्हें स्वीकार नहीं कर लेते। 

इसका अर्थ यह है कि हम जिन घटनाओं से बचना चाहते हैं, वे तब तक हमें परेशान करती रहती हैं जब तक हम उनसे सीख नहीं लेते। जब हम उन्हें स्वीकार कर लेते हैं, तब यह चक्र टूट जाता है और हम उनसे मुक्त हो जाते हैं।

उदाहरण:

अगर किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में किसी गलती की है और वह उसे भुलाने की कोशिश करता है, तो वह गलती बार-बार उसे याद आती है। लेकिन जब वह उस गलती से सीखता है और उसे स्वीकार करता है, तो वह उसे आगे बढ़ने से नहीं रोकती।

6. स्वीकार्यता का महत्व: मुक्ति का मार्ग

ओशो का यह कथन हमें स्मृतियों के प्रति एक नए दृष्टिकोण को अपनाने के लिए प्रेरित करता है। हमें यह समझना चाहिए कि स्मृतियों से भागना या उन्हें दबाने की कोशिश करना समाधान नहीं है। हमें उन्हें स्वीकार करना होगा, उनसे सीखना होगा, और उन्हें अपने जीवन का हिस्सा मानकर आगे बढ़ना होगा। 

स्वीकार्यता का अर्थ है कि हम अपने अतीत को स्वीकार करें, चाहे वह कैसा भी हो। यह स्वीकार्यता हमें उन घटनाओं से मुक्त करती है जो हमें बार-बार परेशान करती हैं। 

उदाहरण:

एक व्यक्ति जिसने अपने जीवन में कठिन समय का सामना किया हो, वह उसे भुलाने की कोशिश करता है। लेकिन जब वह उस समय को स्वीकार कर लेता है और उससे सीख लेता है, तो वह उसे आगे बढ़ने से नहीं रोक पाता।

7. मन की चाल: भुलाने की कला

ओशो के इस कथन का एक गहरा संदेश यह भी है कि भुलाने की कोशिश करना खुद में एक कला है। यह कला तब ही संभव है जब हम समझते हैं कि भुलाना वास्तव में याद करना ही है। जितना हम किसी चीज़ को भुलाने की कोशिश करते हैं, उतना ही वह हमें याद आती है। 

इस कला को समझने का अर्थ यह है कि हमें भुलाने की कोशिश को छोड़कर उसे स्वीकार करना चाहिए। यह स्वीकार्यता ही हमें वास्तविक मुक्ति की ओर ले जाती है।

उदाहरण:

एक छात्र जिसने परीक्षा में असफलता का सामना किया हो, वह उस असफलता को भुलाने की कोशिश करता है। लेकिन जब वह उस असफलता को स्वीकार करता है और उससे सीखता है, तो वह उसे भविष्य में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करती है।

8. आध्यात्मिक दृष्टिकोण: स्मृतियों का अतिक्रमण

ओशो का यह कथन हमें आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी सोचने पर मजबूर करता है। आध्यात्मिकता का अर्थ है कि हम अपने जीवन की घटनाओं को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखें। स्मृतियों का अतिक्रमण तब ही संभव है जब हम उन्हें अपने जीवन के अनुभवों के रूप में स्वीकार करें और उनसे ऊपर उठें। 

आध्यात्मिकता हमें सिखाती है कि हमारा अस्तित्व केवल स्मृतियों तक सीमित नहीं है। हमारा असली स्वरूप उससे परे है। जब हम इस सत्य को समझते हैं, तो स्मृतियाँ हमें प्रभावित नहीं करतीं।

उदाहरण:

एक साधक जो आत्मज्ञान की ओर बढ़ता है, वह अपने अतीत की स्मृतियों से मुक्त हो जाता है। वह समझता है कि वे केवल उसके जीवन के अनुभव थे और उसका असली स्वरूप उनसे परे है।

9. निष्कर्ष: स्मृतियों से मुक्ति का मार्ग

ओशो का यह कथन हमें एक महत्वपूर्ण जीवन का सबक सिखाता है: जितना हम किसी चीज़ को भुलाने की कोशिश करेंगे, वह हमें उतनी ही अधिक याद आएगी। भुलाने का प्रयास खुद एक स्मृति है, और यह हमें उसी घटना या व्यक्ति के प्रति और भी अधिक जोड़ देता है। 

इसलिए, हमें स्मृतियों से लड़ने या उन्हें दबाने की बजाय, उन्हें स्वीकार करना चाहिए। यह स्वीकार्यता ही हमें उनसे मुक्त कर सकती है और हमें शांति और संतोष की ओर ले जा सकती है।

जब हम अपने जीवन की घटनाओं और स्मृतियों को स्वीकार करते हैं, तो वे हमें परेशान नहीं करतीं। वे केवल हमारे जीवन के अनुभव बनकर रह जाती हैं। यह समझ हमें न केवल मानसिक और भावनात्मक शांति प्रदान करती है, बल्कि हमें जीवन में आगे बढ़ने के लिए भी प्रेरित करती है। 

ओशो का यह संदेश हमें यह याद दिलाता है कि जीवन में घटनाओं से भागने या उन्हें भुलाने की कोशिश करना समाधान नहीं है। समाधान यह है कि हम उन्हें स्वीकार करें, उनसे सीखें, और उन्हें अपने जीवन का हिस्सा मानकर आगे बढ़ें। यही सच्ची मुक्ति और शांति का मार्ग है।

कोई टिप्पणी नहीं:

Blogger द्वारा संचालित.